मेरा देश बदल रहा है

माँ लक्ष्मी के दर्शन हुए। साक्षात गुलाबी रंग में। लगभग ७० मिनट सपत्नी कतार में प्रतीक्षा के बाद। अनुभूति ऐसी कि मानो क्या पा लिया हो, एक अनूठी उपलव्धि की तरह। मेरी स्मरण शक्ति ने मुझसे कुछ कहा, पिछली बार कब इस प्रकार कतार में खडे हुए थे। उत्तर मिला, माँ कामख्या देवी के दर्शन के समय, लगभग दो, ढाई वर्ष पूर्व। वह भी अविस्मरनीय अनुभव था, क्योंकि दशमी का दिन था, किसी प्रकार का प्रवेश शुल्क नहीं था और विशेषतः कोई वीआईपी दर्शन की कतार अलग नहीं थी। सभी को लाइन में खड़े होना था। कभी कभी भगवान के मंदिर में भी दर्शन हेतु समानता का भाव देखकर अच्छा लगता है। साल में कुछ दिन के लिए ही सही, कम से कम इतनी संवेदना अभी जीवित तो है।

अर्थशास्त्र व राजनीतिशास्त्र की घनिष्ठता जग जाहिर रही है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से लेकर ऐडम स्मिथ के अर्थशास्त्र तक राजा, प्रजा, व नीति के परिप्रेक्ष में अर्थ की महत्वा हमेशा केन्द्र-बिंदु रही है। शासक, शासन व शोषण नीतिशास्त्र का अभिन्न अंग रहा है। शासन की क्षमता व्यक्ति विशेष के ज्ञान, पराक्रम व साहस से अधिक धन-बल पर निर्भर रही है। इसी कारण शासक की शक्ति उसके पास संचित लक्ष्मी में निहित समझी जाती रही है। राजा भर्तृहरि ने धन के प्रयोग के बारे में सुझाया कि धन के तीन प्रयोग हैं – खर्च, दान व संचय। उनका कहना था कि संचित धन नाशवान है। पूंजीवाद की परिकल्पना ही धन के अधिक से अधिक अर्जन व संचय में समाहित है। शासक प्रायः प्रभावशाली नीतियों व कुशल शासन व्यवस्था को बनाने हेतु अर्थशास्त्रियों पर निर्भर रहे हैं। इस प्रकार राजनीति, अर्थशास्त्र व व्यापार किसी भी देश के विकास की दशा, दिशा व दर्शन को मूलतः प्रभावित करते रहे हैं।

पिछली एक शताब्दी ने बाज़ार के वर्चस्व को अपनी स्वीकारोक्ति से सींचित किया है। सब कुछ बाज़ार में ले जाया गया। बाज़ार पर छोड़ दिया गया। मानो बाज़ार सबका माई-बाप हो गया हो। इस युग में सभी कुछ बाज़ारमय हो गया लगता है। हम क्या साथ लाये थे, क्या साथ ले जायेंगे, बाजार निर्धारित करेगा। मानो सब कुछ बाज़ार का ही हो, बाज़ार ही को अर्पित करना हो। वस्तु, सेवा, व सम्बन्ध, सभी कुछ बाज़ार में दिखाई देते रहे हैं। क्रेता व विक्रेता अपनी गुणा-गणित से मूल्यों का निर्धारण करने में जुटे हैं। ऐसा भी देखने को मिल रहा है जहाँ मूल्यों में व लागत में कोई सम्बन्ध नहीं है। विचित्र बाज़ार है। मुद्रा व मूल्य, लागत व लाभ सभी बाजारू अनुभूति अथवा बाज़ार के ग्रहणबोध पर छोड़ दिया गया है। बाज़ार में वर्चस्व लाभ से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। शेयर बाज़ार का सूचकांक, आर्थिक स्थति का बैरोमीटर हो गया है। व्यापार की वास्तविकता व सूचकांक में घोर सम्बन्ध होना अनिवार्य नहीं रह गया है। बाज़ार का अर्थशास्त्र वास्तव में विचित्र है। बाज़ारी एकीकरण को व्यापार व अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंधों की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जा रहा है।

विमुद्रीकरण की प्रक्रिया को किर्यान्वित करने की ओर बढाये जा रहे कदमो की सराहना व तिरस्कार दोनों का बाज़ार गर्म है। विपक्ष विचलित है। वोट की राजनीति, नोट की राजनीति पर भारी पड़ने का असफल प्रयास कर रही है। पूंजीवाद के सभी सिद्धांत मानो अपनी प्रासंगिकता पर प्रश्न से अचंभित सा महसूस कर रहे हों। माँ लक्ष्मी अपने गरीब याचकों को कतारों में खड़ा देखकर मुस्करा रहीं हैं। समाजवाद अपनी जड़ों में पड़ते पानी को देख खुश हो रहा है। परन्तु यह ख़ुशी कितने दिन की है, समय ही बता सकेगा। इसको परिपक्व होने के लिए अनुकूल वातावरण बनता प्रतीत हो रहा है। गरीब खुश है, आज तक अमीर दिखने वालों की गरीबी को देख। अमीर छोटे कारोबारियों को लालच दे रहा है। धन वितरण की अनोखी प्रक्रिया प्रारंभ हुई है। झुग्गियों में रहने वालों के लिए आय के कुछ नए स्रोत बन रहे हैं। सीमा पर खड़े सैनिक की तुलना ए टी एम के बाहर कतार में खड़े व्यक्ति के साथ की जा रही है। घंटों मंदिरों के बाहर प्रतीक्षा करने वाले तीर्थयात्री, ए टी एम की कतार में खड़े होने पर परेशान हैं। दलालों के प्रयोजन का विस्तार हो रहा है। वैसे भी अब व्यापार व दलाली में अधिक अंतर नहीं रह गया है। व्यावसायिक गतिविधियों में लगे लोग मुद्रा की उचित मात्रा में अनुपलब्धि से पीड़ित हैं। यह समय उनके संयम व विवेक की परीक्षा का है।

आज पूंजीवाद व समाजवाद साथ बैठे चर्चा कर रहे हैं। साम्यवाद अपनी ज़मीन ढूंढने का प्रयास कर रहा है। नए नए अर्थशास्त्री पैदा हो रहें हैं। गांव की चौपाल में चर्चा का विषय ग्राम पंचायत से उठकर संसद की चर्चा पर केंद्रित हो रहा है। मांग व पूर्ति के सिद्धांत का वर्णन कारोबारी महिलाओं तक सीमित नहीं रह गया है। बल्कि गृहिणियों में भी इसके मूल की चिंता है। कक्षा नौ में पड़ा ग्रेशम का सिद्धांत अपनी उपयोगिता पर हंस रहा है, कौन सी पुरानी मुद्रा, कौन सी नई मुद्रा, कौन सी अधिक मूल्य की मुद्रा, कौन सी कम मूल्य की मुद्रा, सब कागज़ है। बुरा अच्छे को प्रचलन से बाहर करने में जुटा है।

उपभोग व विलासिता की परिकल्पनाओं में परिवर्तन हो रहा है। उपयोगिता के सिद्धांत को आज के समय के अनुसार परिभाषित करने की आवश्यकता लग रही है। अवसरवाद सड़क व राजनीति से बढ़कर अर्थशास्त्र व समाजशास्त्र की पुस्तकों में स्थान पाने के लिए व्याकुल है। आय दिन भ्रष्टाचार के नए प्रयोग सामने आ रहे हैं। भ्रष्टाचारियों को पकड़ने के लिए रचनात्मक तरीके व आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है। हर कोई विमुद्रीकरण से प्रभावित है। जीवन चल रहा है। सारी मज़बूरियों के बावजूद जीवन चल रहा है। मेरा देश बदल रहा है। हम सब स्थूल की ओर भाग रहे हैं और सूक्ष्म से दूर जा रहे हैं।

आर्थिक विकास की गति में कुछ ठहराव सा आ रहा है। ठहराव जीवन के सर्वांगीण व सतत विकास हेतु आवश्यक भी है। चौथे गियर की गति में चलती अर्थव्यवस्था को अचानक दूसरे गियर में चलने पर विवश होना पड़ रहा है। इस गति में चलने के अपने लाभ हैं। लेकिन तीब्र गति से चलने की आदत पड़ जाने के कारण इस मंदगति का प्रभाव अधिक दीख रहा है।

अच्छे नेतृत्व से भी अधिक आवश्यक है कि व्यक्तिगत रूप से हम व्यवस्था के सुधार हेतु कार्य करें। एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है। हम सबको इस समय अपने नेतृत्व को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है, न कि हम सरकार द्वारा उठाये इस सशक्त व जोखिम से भरे कदम की निंदा में अपना समय बर्बाद करें। जनता द्वारा चुनी हुई सरकार को समय देने की जरूरत है। देश का नेता इस कदम के बुरे प्रभावों का जिम्मा लेने को तैयार खड़ा है।

यदि विमुद्रीकरण की इस प्रक्रिया से देश की अर्थव्यवस्था, सामजिक व्यवस्था व राजनीतिक व्यवस्था के अच्छे परिणाम न आएं तो अगले चुनाव में जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए अपने नेता को बदल दे। आखिर देश कोई अराजक हाथों में तो नहीं है और इस प्रजातान्त्रिक देश में मताधिकार की स्वतंत्रता सभी मतदाताओं के पास है।

जिस प्रकार आयकर विभाग व प्रवर्तन निदेशालय के नेतृत्व में भिन्न स्थानों पर छापे मारे जा रहे हैं व करोड़ों रुपयों की बरामदगी हो रही है, लगता है जब तक व्यक्तिगत स्तर पर हम भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए कमर नहीं कसेंगे, सारे प्रयास विफल होंगे। कहने को भारत में शिक्षा के स्तर में सुधार हो रहा है, परंतु उससे कहीं अधिक तीब्र गति से मूल्यों का ह्रास हो रहा है। इतना सब होते हुए भी कुछ लोग अपने आराम की परवाह किये बिना दूसरों की सेवा करने में जुटे है, जो अत्यंत सराहनीय है।

हम क्या साथ लाये थे, क्या साथ ले जायेंगे। हम किस भ्रम में जीवित हैं - यह मेरा है, यह तेरा है, जो कर रहा हूँ मैं कर रहा हूँ| जो कुछ हो रहा है मेरे करने से हो रहा है| धन मेरा है, यह मैंने अपने परिश्रम से अर्जित किया है। बर्ट्रेंड रसेल ने मुद्रीकरण की प्रक्रिया को ही सही नहीं बताया। उनके अनुसार मुद्रा व मुद्रीकरण समाज में विभाजन का कार्य करते हैं। समाजशास्त्रीय द्रष्टिकोण से संभवतः वस्तु-विनिमय व्यवस्था, मुद्रा के प्रयोग से बेहतर व्यवस्था प्रतीत होती है। परंतु पूँजीवाद अपनी लम्बी आयु व लगभग सार्वभौम उपस्थिति के कारण पैर जमाये खड़ा है। मुद्रा स्फीति मांग व पूर्ति पर निर्भर करती है। बाज़ार के सुचारू रूप से चलने हेतु मांग का होना आवश्यक है। महँगाई के रुकने से आर्थिक विकास की गति भी धीमी हो जाती है। सामान्य व्यक्ति के लिए यह विचित्र सा होगा।

जिस सरकार पर व्यापारियों, उद्यमियों व धनी वर्ग के व्यक्तियों से घनिष्ठता का आरोप लगता रहा हो। जिस सरकार ने अपनी आर्थिक नीतियों को विदेशी निवेश को आकर्षित करने पर केंद्रित रखा हो। वही सरकार विमुद्रीकरण जैसे जोखिम भरे कदम से देश की सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने की ओर कदम बढ़ाती है।जहाँ एक ओर यह जनता की सरकार के प्रति बनी धारणा को परिवर्तित करने का एक ठोस प्रमाण है वहीँ दूसरी ओर 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे को साकार बनाने हेतु एक सशक्त कदम।

हमें अपने देश के सर्वांगीण विकास हेतु एक नयी व्यवस्था व मॉडल की आवश्यकता है। संभवतः वर्तमान की समस्याएं इस मौसम की धुन्ध के साथ समाप्त हो जाएंगी व हम अपने देश में एक नवीन प्रकाशमय सुबह का स्वागत करेंगें।

हाँ, मेरा देश बदल रहा है, आगे बड़ रहा है।

[प्रोफ़ेसर विजय कुमार श्रोत्रिय:, वाणिज्य विभाग, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली]

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